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जानिए श्री गणेशजी का आध्यात्मिक रहस्य उनके हर एक अंग देते है अध्यात्मिक शंदेश

भारत देश की सभ्यता संस्कृति का त्यौहार एक अभिन्न अंग है । त्यौहार हमारे जीवन में विभिन्न प्रकार की खुशियां,  उमंग उत्साह लेकर आते हैं इन्हीं त्यौहारों में से एक त्यौहार गणेश चतुर्थी है ।

गणेश जी के पूरे शरीर को सिर को अलग कर के देखेंगे तो मनुष्य का ही शरीर दिखता है परंतु इस शरीर को हाथी का चेहरा दिया गया है इसीलिए उन्हें गजधर कहते हैं जिनमें हाथी के समान अंग दिखाई दिए हैं । आंख, कान,  सूंड, दांत आदि । परंतु इन सभी के पीछे जो आध्यात्मिक रहस्य है वह इस प्रकार है ।


सूंड

सूंड आध्यात्मिक शक्ति की प्रतीक है । हाथी की सूंड इतनी मजबूत और शक्तिशाली होती है कि वह वृक्ष को भी उखाड़ कर,  सूंड में लपेटकर ऊपर उठा लेता है । गोया वह एक बुलडोजर और क्रेन दोनों का कार्य एक साथ कर सकता है ।  साथ ही छोटे-छोटे बच्चों को भी प्रणाम करता है,  किसी को पुष्प अर्पित करता है, पानी का लोटा चढ़ाकर पूजा करता है, सुई जैसी सुक्ष्म चीज को भी उठा लेता है । ज्ञानवान व्यक्ति भी अपने मूल आदतों को जड़ों से उखाड़कर फेंकने में समर्थ होता है । सुक्ष्म से सुक्ष्म बातों को भी धारण करने के लिए, दूसरों को सम्मान,स्नेह और आदर देने में वह कुशल होता है । अपने पुराने संस्कारों को जड़ से पकड़कर निकाल फेंकने के लिए भी हाथी की सूंड जैसी उसमें आध्यात्मिक शक्ति होती है । इस तरह हाथी की सूंड ज्ञानी व्यक्तियों की क्षमताओं का प्रतीक हैं ।

कर्ण

उनके कान पंखे जैसे बड़े बड़े होते हैं बड़े-बड़े खुले कान हमें यह शिक्षा देते हैं कि आवश्यक एवं महत्वपूर्ण बात चाहे वह स्व के प्रति हो या अन्य के प्रति से ध्यान से सुने । कान को मुख्य ज्ञानेंद्रिय माना गया है । गुरु भी जब अपने शिष्य को मंत्र देते हैं तो उसके कान में ही उच्चारण करते हैं । भगवान ने जब गीता ज्ञान दिया तो अर्जुन ने कानों के द्वारा ही उसे सुना । अतः बड़े-बड़े कान, ज्ञान श्रवण के प्रतीक हैं । वे ध्यान से, जिज्ञासापूर्वक, ग्रहण करने की भावनाओं को भावना से, पूरा चित्त देकर सुनने के प्रतीक हैं । ज्ञान की साधना में श्रवण, मनन और निज अध्ययन  यह तीन पुरुषार्थ बताए गए हैं । इनमें सबसे प्रथम श्रवण  है । ज्ञान के सागर परमात्मा के विस्तृत ज्ञान का श्रवण इन बड़े कानों से समुचित करना ही इसका प्रतीक है ।

आंखें

उनकी आंखे दिव्य दृष्टि वाली होती है उसे छोटी चीज भी बड़ी दिखाई देती है । यदि उसे छोटी चीज भी दिखाई नहीं देती तो वह सबको अपने पांव के नीचे रौंदता चला जाता । दूसरा उनकी आंखें छोटी लेकिन दूरदर्शिता का प्रतीक होती हैं । हमारे जीवन में कई सुक्ष्म बातें,.रहस्यपूर्ण बातें  होती हैं जिन्हें दूरदर्शिता को ध्यान में रखते हुए, उनके परिणाम को देखते हुए,  फिर अपनानी चाहिए । ज्ञानवान व्यक्ति का भी एक गुण होता है । वह छोटो में भी बढ़ाई देखता है । हर एक की महानता उसके सामने उभरकर आती है और सब का सब को आदर देता है उसके मन को अपने शब्दों से रौधता नहीं है ।

महोदर

बोलचाल की भाषा में यह कहा जाता है कि इसका तो पेट बड़ा है इनको कोई भी बात सुना दी जाए तो वह बाहर नहीं निकलती हैं । गणेश जी का पेट बहुत बड़ा होता है । जो कि समाने की शक्ति का प्रतीक है । ज्ञानवान व्यक्ति के सामने भी निंदा स्तुति,  जय-पराजय ऊंच-नीच की परिस्थितियां आती है परंतु वह उनको स्वयं में संभाल लेता है । गणेश जी का लंबा पेट अथवा बड़ा पेट ( महोदर ) ज्ञानवान के इसी गुणों का प्रतीक है ।

गणेश जी की चार भुजाएं दिखाई जाती है उनमें से एक में कुल्हाड़ा दिखाया जाता है । कुल्हाड़ा तो काटने का एक साधन है ज्ञानवान व्यक्ति मे ममता के बंधन काटने और संस्कारों को जड़ से उखाड़ने की क्षमता होती है उसी का प्रतीक यह कुल्हाड़ा है । ज्ञान एक कुल्हाड़ी की तरह से है जो उसके मन के जुड़े हुए दैहिक नातो को चूर चूर कर देता है । गीता में भी ज्ञान को तेज तलवार की उपमा दी गई है जिससे कि काम रूपी शत्रु को मारने के लिए कहा गया है । आसुरी संस्कारों को मार मिटाने के लिए ज्ञानरूपी कुल्हाड़ा जिसके पास है वह आध्यात्मिक योद्घा ही ज्ञानी है । हमें गणेश जी जैसा पूजनीय बनाना है तो हमें भी ऐसी बड़ी शक्तियां धारण करनी होगी ।

वरद् मुद्रा

गणपति जी का एक हाथ सदा वरद मुद्रा में दिखाया जाता है । देवता हमेशा देने वाले ही होते हैं । जिसकी जैसी भावना, श्रद्धा होती है उन्हें वैसी ही प्राप्ति अल्पकाल के लिए होती है । वरद मुद्रा इस बात का प्रतीक है ।  जैसे गणेश जी हमेशा दाता के रूप रहते हैं वैसे ही ज्ञानवान व्यक्ति की स्थिति ऐसी महान हो जाती है कि वह दूसरों को निर्भयता और शांति का वरदान देने की सामर्थ वाला हो जाता है । वह अपनी शुभ मनसा से दूसरों को आशीष प्रदान कर सकता है ।

बंधन ( रस्सी )
आत्मा का परमात्मा के साथ नाता जोड़ना भी प्रेम के बंधन में बँधना है । गणपति जी के एक हाथ में जो डोरे (बंधन) हैं वह इसी प्रेम के डोरे हैं । वे दिव्य नियमों के शुद्ध बंधन है । ज्ञानी स्वयं इन नियमों के बंधनों में स्वयं को ढालता है ।

इसका दूसरा भाव है कि आत्मा परमधाम से अकेली आती है जैसे ही वह देह में प्रवेश करती हैं तो कई संबंधों के बंधनो में बंध जाती है और उनके साथ उसका कर्मों का लेखा जोखा शुरू हो जाता है । ऐसे कई  बंधनों में बंधती चली जाती है । इसमें सुख के बंधन कम और दुख के बंधन अधिक होते हैं । इन बंधनों से मुक्त होने के लिए ही आत्मा ईश्वर के पास आती है कि मुक्तिदाता मुझे मुक्त करो ।

मोदक
मोदक शब्द खुशी प्रदान करने वाली वस्तु का वाचक है । लड्डू बनाने के लिए चनों को पीसना, भीगाना, भूनना पड़ता है तब कहीं जाकर वह प्रिय पदार्थ बनता है । इसी प्रकार ज्ञानवान व्यक्ति को भी अनेक कठिनाइयों, संकटों, दुश्वारियों इत्यादि में से गुजरना पड़ता है अर्थात उसे तपस्या करनी पड़ती है । जीते जी मरना होता है और इसी से वह अधिकाधिक मिठास व ज्ञान का रस अपने आप में भरता है । तब वह स्वयं भी सदा खुश रहता है और दूसरों को भी खुशी प्रदान करता है । इस प्रकार हाथ में मोदक का होना ज्ञान निष्ठा, ज्ञान रस से सराबोर स्थिति का प्रतीक है ।

इसका दूसरा भाव यह है कि हम हमेशा मुख से मीठा बोले, कड़वा न बोले हर एक को सुख पहुंचाये, ऐसे बोल बोले कि किसी का मान सम्मान और बढ़े ।

गणपति जी के अलंकारों व प्रतीको का उल्लेख किया गया है इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि गणपति जी, परमपिता परमात्मा द्वारा प्राप्त ज्ञान को गहराई से समझने वाले, उसे जीवन में पूर्णता व्यवहार में लाने वाले, स्वयं लक्ष्य स्वरूप और ज्ञान की शक्तियों को प्राप्त करने वाले ही का प्रतीक है।

गणपति अथवा गणनायक एक प्रकार से प्रजापति अथवा प्रजापिता शब्द का पर्यायवाची है क्योंकि गण और प्रजा लगभग समानार्थक हैं । अतः कहा जा सकता है कि गणपति प्रजापिता ब्रह्मा ही थे यह उनका कर्तव्य वाचक नाम है क्योंकि प्रजापिता ब्रह्मा ने ही परम पिता परमात्मा शिव से ज्ञान को प्राप्त कर ज्ञानियों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया और परमपिता परमात्मा शिव ने उनके पुराने संस्कारों के स्थान पर नए संस्कार और दिव्य बुद्धि प्रदान की । उन्होंने ईश्वरीय बुद्धि के आधार पर नई सृष्टि की स्थापना के कार्य में आए विघ्नों को पार किया इसीलिए वे विघ्न विनाशक भी  हैं ।

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